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वन्दना झा
समस्तीपुर:- है होश जब तक जिन्दगी में, जश्न होना चाहिए, खुशियाँ बन जायें राधिका, मन कृष्ण होना चाहिए। हाथों मे माँ सरस्वती का वास, बातों मे अपनेपन का एहसास, जिवंत करते है मिट्टी से बोलती प्रतिमाएँ कई पीढियों से रामदयाल पण्डित, चन्देश्वर पण्डित और दिनेश पण्डित अपने परिवार समेत अदभुत, अप्रतिम, अकल्पनीय ये प्रतिमाएँ ही इन्हे बनाती है सब से खास कहते है सृष्टी रचना ब्रह्मा जी ने किया और एक से बढकर एक ऐसी रचनाएं उत्पन्न की जिन्हे देखने के लिये स्वयं देवता भी धरती पर आते रहे और मुग्ध होते रहे है। रचनाओं का कुछ ऐसा ही संसार है, जहाँ मिट्टी मे फूँके जाते है प्राण। समस्तीपुर मे अपने घर की परम्परा को सीने से लगाये ये कलाकार आज भी मिट्टी को सोना बना रहे है। अपने कला के जौहर को देश विदेशों तक ले जाकर धूम मचाने का सपना लिये ये महान कलाकार बिहार के अलावा कई अन्य राज्यों मे अपने नाम का डंका बजा चुके है।
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यहाँ आकार लगता है मानो स्वर्ग उतर आया हो, कहीं राम की धूम तो कहीं श्याम की धुन कहीं माँ दुर्गा तो कहीं कालिका कहीं शिव, हनुमंत है तो कहीं बुद्ध, महावीर, तो कहीं चण्डिका पर्यावरण की कहीं झांकी है तो कहीं शगुन के हाथी हैं।समस्तीपुर की धरती पे कदम- कदम पर इनके बनायी अनमोल प्रतिमाएँ अपनी मोहकता और शिल्पकारीता से मन मोह लेती है।वहीं दूर-दूर से लोग यहाँ मूर्तियाँ लेने आते है। यहाँ से जिवंत प्रतिमाओ को अपने मन्दिर या घरों मे स्थापित कर सके। त्योहारों मे तो यहाँ जैसे मेला ही लगा रहता है और जन्माष्टमी मे तो एक भव्य मेले का आयोजन होता भी है, जो यहाँ की पहचान बन चुका है नवरात्र मे दुर्गा जी की प्रतिमाएँ तो एक नया आयाम देती है। इनकी सृजनात्मक कला का पुरानी दुर्गा स्थान हो या मथुरापुर, कृष्णा टॉकीज या अन्य जगह हर पंडालों से श्रेष्ठ कला की उच्चतम शिखर को छुते है ये कलाकार।
“किन्तु ये जीवन इतना
भी आसान नही है
हौसले तो है बुलंद
पर उड़ने को असमान नही”
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ठण्ड की कड़कती मार हो या जेठ की दुपहरी कोई दिन मिलता नही आराम। अपने बदन के पसीने को पोछते दूसरों के लिये मटकों की राहत का इंतजाम तो ठण्ड मे मे ठिठुरते हाथो से काम या बरसात मे अपनी घरों से टपकते असमान को भुल दूसरो के घरों को बचाने के लिये बनते खपरैल का काम।हर दिन एक नई चुनौतियां हर दिन एक नया संघर्ष
कभी कभी ऐसा भी होता है की दिल मे बोझ रहता है या मन उदास होता है,फिर भी मिट्टी को तरास्ते ये हाथ बस
मुस्कान देना ही जानते है।
समय के साथ हम अपनी जिंदगियों मे सिमट रहे है और पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की होड़ मे अपनी सभ्यता-संस्कृति को ना सिर्फ भुल रहे है बल्कि दरकिनार कर रहे है। ऐसे मे ये कलाकार जिनके जिंदगियों मे अनेक कमियाँ है, उसे भूलकर कैसे रच पाएँगे ये जिवंत प्रतिमाएँ या मिट्टी की अनमोल रचनाएं जिनका ना कोई मोल है ना कोई जरुरत। शायद वो समय भी आये की मुर्तियां भी म्युजियम मे देखने को मिले जैसे आज बाघ और शेर देखने जाते है। मुझे लगता है
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यु तो इनके हुनर की कोई मिशाल नही पर सरकार अगर कुछ सोचती या इनके आर्ट को सही पहचान मिल जाता तो बहुत अच्छा होता।भले ही मिट्टी के बर्तन अब नही दिखते उनकी जगह स्टील ने ले ली, मटको की जगह फ्रिज़ के ठंडे पानी ने ले ली, मिट्टी की मूर्तियो की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस ने ली पर आज भी हम इन कलाकारों के बिना समाज की कल्पना नही कर सकते।
आधुनिकता से दूर उन्ही परम्परागत औजारों से दुनिया बनाने वाले विधाता को अपने हाथो से गढ़ते ये कलाकार आज भी प्रकृति से जुड़े है और श्यामल धरा की गोद मे प्रसन्नचित्त अपनी कला के पंखो से उडते रहते है।
“गढ़ा है जिन्होंने ने माटी के पुतलों से ये अदभुत संसार उनको ही समर्पित कर जीवन,उनकी ही मूरत को गढ़ते है बार-बार। सृजनात्मकता और सुन्दरता को करते रहेंगे एकाकार कभी काली कभी दुर्गा कभी शिव कभी बाबा सलेश तो कभी शामा चकेवा की मूर्तिया दुखी प्राणियों मे खोलते रहेंगे भाग्य का द्वार और ऐसे ही बढता रहेगा बिहार।